,कल का दिन किसने देखा है, आज अभी की बात करो। ओछी सोचों को त्यागो मन से, सत्य को आत्मसात करो। जिन घड़ियों में हंस सकते हैं, क्यों तड़पें संताप करें। सुख-दु:ख तो है आना-जाना, कष्टों में क्यों विलाप करें। जीवन के दृष्टिकोणों को, आज नया आयाम मिले। सोच सकारात्मक हो तो, मन को पूर्ण विराम मिले हिम्मत कभी न हारो मन की, स्वयं पर अटूट विश्वास रखो। मंजिल खुद पहुंचेगी तुम तक, मन में सोच कुछ खास रखो। सोच हमारी सही दिशा पर, संकल्पों का संग रथ हो। दृढ़ निश्चय कर लक्ष्य को भेदो, चाहे कितना कठिन पथ हो। जीवन में ऐसे उछलो कि, आसमान को छेद सको। मन की गहराई में डुबो तो, अंतरतम को भेद सको। इतना फैलो कायनात में, जैसे सूरज की रोशनाई हो। इतने मधुर बनो जीवन में, हर दिल की शहनाई हो। जैसी सोच रखोगे मन में, वैसा ही वापस पाओगे। पर उपकार को जीवन दोगे, तुम ईश्वर बन जाओगे। तुम ऊर्जा के शक्ति पुंज हो, अपनी शक्ति को पहचानो। सद्भावों को उत्सर्जित कर, सबको तुम अपना मानो।
पिता किसी दिवस से कहीं अधिक स्वयं ही देव स्वरुप हैं जैसे हमारे धर्म ग्रंथों में है उदाहरणार्थ पद्मपुराण में कहा गया " सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता।" इसी प्रकार मनुस्मृति में " पिता मूर्ति: प्रजापतेः’" महाभारत में युधिष्ठर ने यक्ष के एक प्रश्न के उत्तर में आकाश से ऊँचा ‘पिता’ को कहा है हिन्दी साहित्य में ‘पिता’ को ‘जनक’, ‘तात’, ‘पितृ’, ‘बाप’, ‘प्रसवी’, ‘पितु’, ‘पालक’, ‘बप्पा’ आदि अनेक पर्यायवाची नामों से जाना जाता है। पौराणिक साहित्य में श्रवण कुमार, अखण्ड ब्रह्चारी भीष्म, मर्यादा पुरुषोत्तम राम आदि अनेक आदर्श चरित्र प्रचुर मात्रा में मिलेंगे, जो एक पिता के प्रति पुत्र के अथाह लगाव एवं समर्पण को सहज उल्लेखित करते हैं। वैदिक ग्रन्थों में ‘पिता’ के बारे में स्पष्ट तौर पर उल्लेखित किया गया है कि ‘पाति रक्षति इति पिता’ अर्थात जो रक्षा करता है, ‘पिता’ कहलाता है। परंतु ये हमारी ये नई पीढ़ी हमारे धर्म-ग्रन्थों के असीमित और सर्वश्रेष्ठ ज्ञान से अनभिज्ञ । हमारी प्राचीनतम सभ्यता पवित्र परंपराओं से दूर,,सम्पूर्ण रूप से पश्चिम की सभ्यता और मान्यताओं से प्रभावित होती जा रह...
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